मध्यप्रदेश के इंदौर शहर के वकील मो अहमद खान की शाहबानों से 1932 में निकाह हुआ था। शाहबानो से पांच बच्चे हुए थे, लेकिन इसी बीच वकील खान से 14 साल बाद 1946 में दूसरा निकाह काफी कम उम्र महिला से साथ कर लिया शाहबानो अपने बच्चों के परवरिश के लिए खान के साथ रही। लेकिन 1978 एक दिन ऐसा आया कि वकील खान ने तलाक देकर धक्के मारकर उस घर से निकल दिया जिस घर में निकाह के बाद दुल्हन बनकर आई थी।कुछ महीनों तक 200 रूपये गुजरा भत्ता देता रहा, वह भी कुछ महोनों में बंद कर दिया। एक मुस्लिम तलाकशुदा शाहबानो बेगम महिला समाज में जीने के लिए अपने अधिकारों के लिए लड़ाई शुरू की, जो उसे भारतीय संविधान देता है। शुरू में वह काजी के पास भी गई, लेकिन इस्लाम में उसे अधिकार नहीं मिला। तो भारतीय संविधान के तहत (CRPC) अपराध दंड संहिता की धारा 125 के तहत इंदौर न्यायालय का दरवाजा खटकाया। शाहबानो बेगम ने अपने बच्चों सहित जीविकापार्जन के लिए 500 महिना गुजरा देने की मांग की लेकिन मो अहमद खान ने न्यायालय को कहा कि मैने निकाह के समय तय की गई मेहर की राशी जो 5400 दे दिया तथा मुस्लिम पर्सनल ला के तहत गुजरा भत्ता देने के लिएबाध्य नहीं हू। इंदौर न्यायालय कोई भी तर्क नहीं माना तथा वकील मोहम्मद अहमद खान को 25 रूपये महिना गुजरा भत्ता देने का आदेश दिया। पच्चीस रूपये में गुजरा करना मुश्किल था, इसलिए शाहबानो ने मध्यप्रदेश के उच्च न्यायालय में गई। जिसे उच्च न्यायलय ने 1 जुलाई 1980 को शाहबानो के पक्ष में फैसला देते हुए गुजरा भत्ता 179 रूपये माहवार देने का आदेश दिया। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ मो अहमद खान ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की जो भारतीय इतिहास में अध्याय लिखने वाला है।
यह अपील सबसे पहले तीन फरवरी 1981 को दो जजों की बेंच के सामने आई। जस्टिस मुर्तजा फजल अली और ए. वरदाराजन ने मामले की गंभीरता को देखते हुए इसे पांच जजों की खंडपीठ को रेफर कर दिया। पांच जजों की इस खंडपीठ में थे जिसमे तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़, न्यायाधीश रंगनाथ मिश्रा, न्यायाधीश डीए देसाई, न्यायाधीश ओ. चिनप्पा रेड्डी और न्यायाधीश ईएस वेंकटरमैया ने सुनवाई की। उच्चतम न्यायालय मोहम्मद अहमद खान व शाहबानो बेगम केस की सुनवाई चार साल तक चलती रही। मो अहमद खान का तर्क था कि उसने दूसरा निकाह कर लिया है, जो इस्लामिक क़ानून के तहत जायज है मेहर की राशि दे दिया, इसलिए अब पहली बीबी को गुजारा भत्ता देने के लिए वह बाध्य नहीं। उच्चतम न्यायालय ने 23 फरवरी 1985 को फैसला सुनाया। मध्यप्रदेश हाई कोर्ट के आदेश को सही करार दिया गया। उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में भारत सरकार को एक दिशा दिया कहा कि देश में समान नागरिक क़ानून (UCC) की आवश्यकता है, जिस पर सरकार को विचार करना चाहिए। लेकिन सीआरपीसी की धारा 125 मुस्लिमों पर भी लागू होती है। यह धारा किसी जाति, धर्म और वर्ण में कोई भेद नहीं करती। शाहबानो के पति को उसे गुजारा भत्ता देना ही होगा। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमायत उलेमा-ए-हिंद भी इस मामले में पक्षकार बन गए थे।