वैसे हमारे देश में प्रतिभाओं की
कमी नहीं है लेकिन कद के अभावों में विलुप्त हो जाते है, ऐसा ही चेदरू मांडवी भी
था। चेंदरू मंडावी छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले से 2 किमी पर गाँव गढ़बेंगाल का रहने
वाला मुरिया जनजाति का यह 10 वर्षीय बड़ा ही वीर बहादुर लड़का था। जैसा कि शकुंतला
दुष्यंत के पुत्र भरत जन्म अवस्था में ही कश्यप ऋषि के आश्रय में ही जन्म से लेकर बाल्यकाल बिता रहा था। ऐसे वीर भरत बाल्य अवस्था में
शेरों के साथ खेला करते थे। इसी वीर बालक भरत के नाम से भारत वर्ष पड़ा है।
वैसे ही बस्तर का यह लड़का चेदरू मांडवी शेरों के साथ
खेलता था। 1957 में चेंदरू पर 75 मिनट
की निर्माता अरने
सक्सडोर्फ ने फ़िल्म बनाई “द फ्लूट एंड द एरो” जिसे भारत में नाम दिया गया “द जंगल सागा”। फ़िल्म
अंतराष्ट्रीय स्तर पर खूब सफल रही। 1957 में बनी इस फ़िल्म को
1958 के कांस फ़िल्म फेस्टिवल में भी जगह मिली। चेंदरू
द टायगर बाय के नाम से मशहुर चेंदरू पुरी दुनिया के लिये किसी अजुबे से कम नही था।
बस्तर के मोगली नाम से चर्चित चेंदरू पुरी दुनिया में 60 के
दशक में बेहद ही मशहुर था। चेंदरू के जीवन का दिलचस्प
पहलू था उसकी टाइगर से दोस्ती, वह भी रियल जंगल के। दोस्ती
भी ऐसी कि दोनों हमेशा साथ ही रहते थे, खाना, खेलना, सोना सब साथ-साथ। बस्तर के जंगल से हॉलीवुड का स्टार
और फिर गुमनामी, की कहानी फिल्मी है - चेदरू मांडवी की।
चेदरू मंडावी जो कि खास बस्तर के अबूझमाड़ क्षेत्र में रहने वाले एक मुरिया जनजाति समाज से था। उसके पिता और दादा
एक कुशल शिकारी थे तथा जीवन यापन के लिए खेतीबाड़ी किया करते थे। एक दिन शिकार के लिए गए थे उन्हों बाघ का बच्चा मिला उसे बांस की टोकरी में रखकर घर ले आये। वह चेंदरू के लिये एक तोहफा लाये, तोहफा एक दोस्ती का जिसने चेंदरू का जीवन बदल दिया। बांस की टोकरी में
छुपे तोहफे को देखने चेंदरू बड़ा ही उत्साहित था।
जब टोकरी खुली, चेंदरू ने अपने सोच से परे कुछ पाया।
टोकरी में था एक बाघ का बच्चा। जिसे देख चेंदरू ने उसे गले लगा लिया और इस
मुलाकात से बाघ और चेंदरू की दोस्ती की शुरूआत हो गई।
चेंदरू ने उस बाघ का नाम रखा
टेम्बू। टेम्बू और चेंदरू साथ गांव में घूमते, जंगल जाते, नदी में
मछलियां पकड़ते और जंगल में कभी तेंदुए मिल जाते तो वह भी इनके साथ खेलने लगते। जब
चेंदरू और टेम्बू रात को घर आते, चेंदरू की माँ उनके लिये
चावल और मछली बना कर रखती। दोस्ती का यह किस्सा गांव गांव फैलने लगा और एक दिन
विदेश में स्वीडन तक पहुच गया, स्वीडन के मशहूर डायरेक्टर “अरने सक्सडोर्फ” को जब यह किस्सा पता चला, वह सीधा बस्तर आ पहुचे।
सोचिए एक ऐसा दृश्य जहाँ एक मनुष्य और एक बाघ एक दूसरे के दोस्त हो, दोनों में कोई बैर नही। जिनकी सुबह साथ मे होती है और रात भी। कोई भी ऐसा
किस्सा सुन ले तो अपनी आंखों से देख कर ही दम भरे, और अब ऐसा
दृश्य डायरेक्टर “अरने सक्सडोर्फ” के
सामने था। जिसे देख उस दृश्य को उन्होंने पूरी दुनिया को दिखाने का फैसला कर लिया।
अरने सक्सडोर्फ
ने फ़िल्म बनाई “द फ्लूट एंड द एरो” जिसे भारत मे नाम दिया गया “द जंगल सागा”। फ़िल्म अंतराष्ट्रीय स्तर पर खूब सफल रही। 1957 में
बनी इस फ़िल्म को 1958 के कांस फ़िल्म फेस्टिवल में भी जगह
मिली। फ़िल्म की शूटिंग के समय अरेन सक्सडोर्फ और चेंदरू में एक रिश्ता सा बन गया।
अरने सक्सडोर्फ के शब्द थे कि वह चेंदरू को अपने बेटे की तरह देखते थे। फ़िल्म की
वजह से चेंदरू और टेम्बू कि कहानी दुनिया ने देखी, अब दुनिया
चेंदरू को करीब से देखने की लालसा में थी। अरेन भी चाहते थे कि चेंदरू वो जगह देखे
जहाँ से वह आये है, तो उन्होंने चेंदरू को स्वीडन ले जाने का
सोचा। और वो उसे स्वीडन ले गए।
स्वीडन चेंदरू के लिये एक अलग ही
दुनिया थी, अरेन ने उसे एक परिवार का माहौल दिया, उन्होंने उसे
अपने घर पर ही रखा और अरेन की पत्नी “अस्त्रिड सक्सडोर्फ”
ने चेंदरू की अपने बेटे की तरह देखरेख की। अस्त्रिड एक सफल
फोटोग्राफर थी, फ़िल्म शूटिंग के समय उन्होंने चेंदरू की कई
तस्वीरें खीची और एक किताब भी प्रकाशित की “चेंदरू – द बॉय एंड द टाइगर”। स्वीडन में चेंदरू करीब एक साल
तक रहा, उस दौरान उसने बहुत सी प्रेस कॉन्फ्रेंस, फ़िल्म स्क्रीनिंग की, और अपने चाहने वालो से मिला।
दुनिया उतावली थी उस बाल कलाकार से मिलने जिसकी दोस्ती एक बाघ से है, जो एक बाघ के साथ रहता है। पूरा विश्व अब चेंदरू को टाइगर बॉय के नाम से
जानने लगा। एक साल बाद चेंदरू स्वदेश वापस लौटा। मुम्बई पहुँच कर चेंदरू की तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मुलाकात हुई, उन्होंने चेंदरू
को पढ़ने के लिये कहा, पर चेंदरू के पिता ने उसे वापस बुला
लिया। चेंदरू अब बस्तर के अपने गांव वापस आ गया, पर वापस आने के कुछ दिनों बाद टेम्बू
चलबसा। चेंदरू उदास रहने लगा पर वह धीरे धीरे पुरानी ज़िन्दगी में लौटा और फिर
गुमनाम हो गया।
वर्षो बीत गए, कुछ टीवी पर बीमार
चेंदरू के बारे में बस समाचार में ही है। जब चेंदरू मंडावी को लकवा मारने पर
अस्पताल पहुचा। बीमार चेंदरू की टीवी और समाचार पत्रों में केवल खबर बस रह गया। कोई सरकार या
सामाजिक संस्था ने भी रूचि नहीं दिखाया। राज्य सभा टीवी पर राजेश बादल का 20 मिनट का रिपोर्टिंग किया हुआ कार्यक्रम है। 1996 में बना JungleDreams नाम से एक डाक्युमेटरी ही जिसे प्रमोद माथुर बनाया और Youtube पर शेयर किया है। हमे देखना चाहिए और अपने बच्चों को भी साथ में बताना चाहिए की वन्य जीव हमारे लिए खतरनाक नहीं है, बल्कि पूरक है मानव जाती का धर्म है। इस जंगल को बचाना हमारी जिम्मेदारी है जंगल रहेगा तो जीव भी रहेगे हो सकता है, कि कोई चेंदरू मोगली कोई टार्जन भी फिर दे आये ।
जब चेंदरू मंडावी नाम व्यक्ति को 23 सितंबर 2011 लकवा की बीमारी से जगदलपुर हास्पिटल में
भर्ती होता है। तभी स्थानीय मीडिया तथा समाचार पत्रों के द्वारा लोगों को पता चलता की चेंदरू
मंडावी के बारे में, उसमे से मै भी हूँ। ऐसा भी व्यक्तित्व होते हुए भी हमने खो
दिया है। खानापूर्ति के लिए रायपुर में एक प्रतिमा लगा कर इतिश्री कर दिया है। यदि
कोई राजनीतिक या भड़वे कलाकार होता तो कई फिल्में बन जाते। लेकिन एक निडर बालक पर
एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म भर है। राज्य सभा टीवी पर भी उसी डॉक्यूमेंट्री पर
रिपोर्टिंग भर है। आज जंगल में जानवर और मनुष्य पर संघर्ष सभी जगह दिखा जाता है, लेकिन पूरकता नही। इस कमी को चेंदरू मंडावी ने दोस्ती के साथ पूरा करने की कोशिश
ही है....
साभार -https://kosalkatha.com/chendru-mandavi-bastar-chhattisgarh/
https://www.bbc.com/hindi/india/2013/09/130831_tiger_boy_chandru_fma
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