30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने
अयोध्या में राम मंदिर पर मामले पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। जस्टिस डी वी शर्मा जस्टिस सुधीर अग्रवाल, जस्टिस और एस यू खान की बेंच ने फैसले में 2.77 एकड़ की विवादित भूमि को तीन बराबर हिस्सों में
बांट दिया था। जिसमें राम लला विराजमान
वाला हिस्सा हिंदू महासभा को दिया गया। दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़े को और तीसरा हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को
दिया गया। वर्षो के सुनवाई के बाद जस्टिस डी वी शर्मा ने
सेवानिवृत्त होने से पूर्व राम मंदिर पर अपना फैसला सुनाने का हिम्मत दिखया था। इस फैसले को रोक
लगाने के लिए हिन्दू महासभा और सुन्नी वक्फ बोर्ड सुप्रीमकोर्ट में गए थे 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ, दिसंबर में हिंदू महासभा और सुन्नी वक्फ बोर्ड ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी। 9 मई 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने पुरानी स्थिति बरकरार रखने का आदेश दे दिया, तब से इस मामले में यथास्थिति बरकरार है। जिस पर 9 मई 2011 सुनवाई प्रतिदिन सुप्रीमकोर्ट में हो रही है।
हाई कोर्ट ने अपने फैसले में पुरातत्व विभाग की
रिपोर्ट को आधार माना था। जिसमें कहा गया था कि
खुदाई के दौरान विवादित स्थल पर मंदिर के प्रमाण मिले थे। इसके अलावा भगवान राम के जन्म होने की
मान्यता को भी शामिल किया गया था। हालांकि कोर्ट ने यह भी कहा था। कि साढ़े चार सौ साल से मौजूद एक इमारत के ऐतिहासिक तथ्यों की भी अनदेखी
नहीं की जा सकती।
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