बुधवार, 24 सितंबर 2014

सरगुजा की हड़िया

जब से लोग प्रकृति के साथ जीवन जीते रहे। प्रकृति भी उन्हों अनेकों उपहार में कुछ न कुछ देते रही है। इसी प्रकृति के बीच हमारे वनवासी आज भी जीने की कोशिश चल रहा है। प्रकृति के साथ यह उनको वर्षो पीढियों से संबध रहा है। वैसे तो वनवासियों का वनों से हजारों वर्षो से संबध है। इन वनों क बीच में अपने घर परिवार बसता है। इन वनों से अपने जीवन यापन हेतु आवश्यकतानुसार पेड़ पौधों से भोजन, लकड़ी तथा अन्य वस्तुओं का संग्रह करता आया है।  

वनों के बीच में रहता है अपने पालतू पशु चराना, जगलों के जानवरों का शिकार, खेती करना, मछली मरना आदि दिन भर के काम कर जब शाम वह घर पर आता है। शाम को परिवार और अपने समाज के साथ मिलकर अपनी लोक संस्कृति में पीना, खाना, गाता, बजाना और नाचता दिन भर का यही दिनचर्या है। यही दिनचर्या के साथ हजारों सालों से आनंद के साथ जीवन जीते आये है। अपने मनोरजन के लिए बजामस्ती के लिए  हड़िया को पीकर लोकगीतों के साथ खुब नाचना। आज भी वनवासियों ने इस परम्परा को बने  रखा है। पीने के लिए उसने इसी प्रकृति से कई पेड़ पोधों से रानू ( गोली ) बनाकर भात से हड़िया बनते है। शिकार कर जो भी जीव जतु मिले उसको पकाकरहँड़िया पीते हुए, सभी के साथ ( परिवार या समाज ) सामूहिक भोजन करते है। अपने जीवन को आनंद पूर्वक जीता है। साथ ही अपनी संस्कृति के रक्षा लिए भगवानजिसे उनका समुदाय मानता है उसकी श्रृध्दा, भक्ति, भाव  और विश्वास के साथ पूजा पाठ करते है। इस पूजा में ताजा हँड़िया को अर्पित कर सभी को प्रसाद के रूप में देते है। 

हँड़िया वनवासियों का प्रमुख पेय है। जशपुर के पाठ पर रहने वाले कोरवा लोग ही इसे अधिक उपयोग करते है। उनके लिए एक प्रकार का टानिक का काम करता है। शरीर के लिए आवश्यक पोषण तत्व की पूर्ति इसी से है। मतलब कहे तो हड़िया थोडा सा नशा करता है लेकिन शराब जैसा नशीला नहीं। हड़िया पीने वाला आदमी नशे ( मदहोश ) में नहीं रहता है। सरगुजा संभाग में किसी भी कोना में जाएगे आपको हँड़िया की परंपरा आपको मिलेगा। अतिथि के आने परउत्सव होने, घर पर मांगलिक कार्य तथा सामाजिक जीवन में हँड़िया ही अवश्य ही मिलेगा सरगुजा पूरी तरह आदिवासी बहुल रहने के कारण सभी जगह एक सा ही परम्पर रहा है। 

मतलब अल्कोहल से कतई नहीं है। बल्कि इसे उत्तर छत्तीसगढ़ के मूल आदिवासियों ने बहुत सोच समझ कर इजाद किया है। हड़िया एक मादक पेय होते हुए भी आदिवासियों की परम्परा और सांस्कृतिक विरासत का एक हिस्सा रहा है। यह खास पेय तैयार होता है चावल, गेहू या मडुआ और रानू नाम की वनों में मिलाने वाले पेड़ पौधों के पत्तों एवं जड़ी को कूट कर पाउडर बनाया जाता है इसे चावल के आटे में मिलकर सफेद गोली छोटे छोटे गोली ( कांच की गोली कांचा) बनाया जाता है। इसलिए जिस रानू की उसमें कई जड़ी में हाई कैलोरी होती है, यह प्रोटीन का भी मात्र भी अच्छा है। चावलमडुआ और गेहूं के कारण फाइबर और कार्बोहाइड्रेट भी भरपूर मात्रा में मिलता है।

पहले धान को बर्तन में उबाला जाता है इसे फिर इसे पासकर ठंडा होने पर धान को कूट कर चावल बनाया जाता है फिर से चावल को पकाकर भात बनता जाता है गर्म भात को ठंडा किया जाता है घर में पुराना काला घडा ( पानी पिने वाला मटका ) भात का डाल देते हैं, जिस भात पसारना कहा जाता है। अब इस पसरे हुए न गर्म न ठंडे भात में रानू की गोली को पाउडर बनाकर ठीक से मिलाया जाता है। उसे घड़े में भर के मुंह को ढँक दिया जाता है। उसके बाद इस भात को फर्मेन्टेशन के लिए रख दिया जाता है। कुछ लोग चावल के साथ गेहूं को भी उबालते हैं। अगर मौसम सर्दियों का है तो कम से कम 6 दिन और अगर गर्मियां हैं तो कम से कम 3 दिन तक चावलों को ऐसे ही रखे रहने देते हैं। समय पूरा होने के बाद इसे बस्तर में लादा कहा जाता है चावल को घोटकर कर उसमें पानी मिलाया जाता है। अब हडिया तैयार हो गया है हड़िया के मूल रूप में पोषण का ध्यान रखा है। इसमें हाई कैलोरी होती है साथ ही यह प्रोटीन का भी मात्र भी अच्छा है। चावल, मडुआ और गेहूं के कारण फाइबर और कार्बोहाइड्रेट भी भरपूर मात्रा में मिलता है। चावलगेहूँ या मडुवा के भात से एक बार बना हड़िया 15 दिन तक इस्तेमाल किया जा सकता है। आदिवासी परिवारों में महीनें में दो बार हड़िया बनाने का चलन रहा है।

वनवासियों में परिवारों में कुल देवता की पूजा के लिए हड़िया सबसे चढाया जाता है। शादी-ब्याह, जन्म-मरण के अवसरों पर भी हड़िया का सेवन किया जाता है। अगर किसी को पीलिया है तो उस व्यक्ति को दिन में तीन बार हड़िया पिलाया जाता है, जानकार बताते हैं कि इससे केवल 3 दिन के भीतर की स्वास्थ्य में बेहतर सुधार दिखाई देता है। इसके अलावा हड़िया पीने से कब्ज से राहत, डायरिया से बचाव और ब्लड प्रेशर कंट्रोल में भी मदद मिलती है। गर्मियों में डिहाइड्रेशन से बचने के लिए दिन में दो बार हड़िया पिया जा सकता है। 

रथयात्रा के बाद बरसात शुरुआत होते पर हडिया पीना बंद कर दिया जाता है। वनवासियों में माना जाता है की भगवान आराम कर रहे है इसके बाद चतुर्मास तक वर्जित रहता है, देव उठनी एकादशी के कर्मापूजा से हडिया बनाना शुरू किया जाता है। दूसरी बात है आजकल हडिया को जल्दी बनाने के लिए यूरिया मिलाया जा रहा है यूरिया नाइट्रोजन का एक रूप है जो शरीर में जाने के बाद जहरीला हो जाता है। इसलिए आप अपने घर में ही हडिया बनाये आजकल कई व्यवसायी स्तर पर हडिया को बनाया जा रहा है जो की खतरनाक है अधिक लाभ कमाने के लिए लोग अधिक नशीला पदार्थ आक्सीटोसिन डाला जा रहा है जो की बहुत ही हानिकारक नशीला हो जाता है आप सभी नशीले पदार्थ से दूर रहे है   

जब यहाँ कोयला निकलना प्रारभ हुआ फिर बाहरी लोगों का आना शुरू हुआ। नए कालोनी कुछ स्थानों थोड़े बड़े नगर बन गये। इनमें रहने वाले लोग सरगुजिया ग्रामीण के लोग नहीं है। अधिकाशं बाहरी राज्य के लोग है, जिन्हें स्थानीय रीति परम्परा का ज्ञान नहीं है। उनके हडिया पर टिप्पणी करना ठीक नहीं है बल्कि उनके परम्परा का सम्मान करना चाहिए क्योंकि आप उनकी धरती पर है


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लिंक - http://www.abhivyakti-hindi.org/snibandh/sanskriti/2013/haat_bazar.htm

http://www.anthrobase.com/Txt/S/Satpathy_N_Satpathy_R_01.htm

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