मंगलवार, 23 मार्च 2021

भगत सिंह की फाँसी को, महात्मा गाँधी ने नही रोका...

 


आज शहीदी दिवस है। आज से 90 वर्ष पूर्व 23 मार्च 1931 को भगत सिंहराजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई थी। कोर्ट ने तीनों को फांसी दिए जाने की तारीख 24 मार्च तय की थीलेकिन ब्रिटिश सरकार को माहौल बिगड़ने का डर था,  उस शाम 7:30 बजे ही तीनों क्रांतिकारियों को चुपचाप लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी पर चढ़ा दिया गया। इन तीनों पर अंग्रेज अफसर सांडर्स की हत्या का आरोप था। महात्मा गांधी उसी समय तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड इरविन के साथ बैठक कुछ बिंदुओं पर समझौता करने वाले थे। उन्होंने इरविन से भगतसिंह के फाँसी के बारे में कोई भी बात ही नही किये। इतिहासकार यह भी मानते हैं कि गांधीजी चाहते तो भगत सिंह की फांसी रोकने के लिए वायसरॉय पर दबाव बना सकते थे, उन्होंने ऐसा किया नहीं। भगत सिंह खुद अपनी सज़ा माफ़ी की अर्जी देने के लिए तैयार नहीं थे जब उनके पिता ने इसके लिए अर्ज़ी लगाई तो उन्होंने बेहद कड़े शब्दों में पत्र लिखकर इसका जवाब दिया था भगत सिंह कहा करते थे कि एक भगत सिंह को फांसी होगी लेकिन हजार भगत सिंह भारत माता की आजादी के लिए पैदा होगे ... भगत सिंह सही सोचते थे

महात्मा गांधी तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड इरविन के बीच ऐतिहासिक समझौता हुआ था। पहली बार अंग्रेजों ने भारतीयों के साथ समान स्तर पर समझौता किया था। इस समझौते की पृष्ठभूमि 1930 की है। अंग्रेजी हुकूमत ने भारतीयों पर नमक बनाने और बेचने की पाबंदी लगा दी थी। इसके खिलाफ महात्मा गांधी ने अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से दांडी तक मार्च निकालाजिसे दांडी मार्च भी कहते हैं। यह सविनय अवज्ञा आंदोलन की ओर पहला कदम था। गांधीजी ने समुद्र तट पर पहुंचकर खुद यह नमक कानून तोड़ा था। इस पर उन्हें जेल में डाल दिया गया था। नमक आंदोलन ने पूरी दुनियाभर में सुर्खियां हासिल कीं और इस कारण लॉर्ड इरविन की मुश्किलें बढ़ गई थीं। तब उन्होंने पांच दौर की बैठक के बाद महात्मा गांधी के साथ मार्च 1931 को समझौता कियाजिसे गांधी-इरविन पैक्ट कहा जाता है। 

देश चाहता था कि गांधीजी, लॉर्ड इरविन से होने वाली संधि में युवा क्रांतिकारियों की फांसी की सजा को माफ करवाएं किंतु गांधीजी तो जैसे स्वयं ही जिद पर अड़े थे कि भगतसिंह तथा उनके साथियों को फांसी अवश्य दी जाए। तत्कालीन वायसरय लॉड इरविन ने लिखा है कि मुझे पूरी उम्मीद थी कि गांधीजी, भगतसिंह तथा उसके साथियों की फांसी की सजा माफ करने की मांग करेंगे किंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। जब भगतसिंह और उनके साथियों को फांसी हो गई तब पूरा देश गांधीजी के खिलाफ गुस्से से उबल पड़ा जिसका सामना कांग्रेस को लाहौर अधिवेशन में करना पड़ा। 

इसमें हिंसा के आरोपियों को छोड़कर बाकी सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा करने पर सहमति बनी थी। उस समय पूरा देश 23 साल के भगत सिंह की चर्चा कर रहा थाजिन्हें 17 अक्टूबर 1930 में फांसी की सजा सुनाई गई थी। गांधी जी पर कांग्रेस के साथ-साथ देश का दबाव था कि वे भगत सिंह की फांसी को रुकवाएंपर गांधी-इरविन समझौते में इस मुद्दे पर बात भी नहीं किये। गांधी ने अपने पत्र में इतना ही लिखा कि भगत सिंहसुखदेव और राजगुरु को फांसी न दी जाए तो अच्छा है।  वे भगत सिंह के संघर्ष को राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा नहीं मानते थे। वहीं देश के नेता सुभाषचंद्र बोस ने कांग्रेस में रहते हुए भी 20 मार्च 1931 को फांसी के विरोध में दिल्ली में एक बड़ी जनसभा की थी।

28 सितंबर, 1907 को पंजाब के लायलपुर में बंगा गांव (जो अभी पाकिस्तान में है) में जन्मे भगत सिंह महज 12 साल के थे, 13 अप्रैल 1919 जब जलियांवाला बाग कांड हुआ। इस हत्याकांड ने उनके मन में अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा भर दिया था।

काकोरी कांड के बाद क्रांतिकारियों को हुई फांसी से उनका गुस्सा और बढ़ गया। इसके बाद वो चंद्रशेखर आजाद के हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ गए। 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के खिलाफ हुए प्रदर्शन के दौरान अंग्रेजों ने लाठीचार्ज कर दिया। इस लाठीचार्ज में लाला लाजपत राय को गंभीर चोटें आईं। उन्होंने कहा था कि मेरे शरीर पड़ी एक एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत में एक एक कील होगी 20 वर्ष बाद ब्रिटिशों को भारत छोड़ना पड़ा 17 नवम्बर 1928 को गंभीर रूप से घायल लाला लाजपत राय का देहांत हो गए, ये चोटें उनकी मौत का कारण बनीं। 

इसका बदला लेने के लिए क्रांतिकारियों ने पुलिस सुपरिटेंडेंट स्कॉट की हत्या की योजना तैयार की। 17 दिसंबर 1928 को स्कॉट की जगह अंग्रेज अधिकारी जेपी सांडर्स पर हमला हुआजिसमें उसकी मौत हो गई। अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने ब्रिटिश भारत की सेंट्रल असेंबली में बम फेंके। ये बम जानबूझकर सभागार के बीच में फेंके गएजहां कोई नहीं था। बम फेंकने के बाद भागने की जगह वो वहीं खड़े रहे और अपनी गिरफ्तारी दी। करीब दो साल जेल में रहने के बाद 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी पर चढ़ा दिया गया। वहींबकुटेश्वर दत्त को आजीवन कारावास की सजा मिली।

बकुटेश्वर दत्त को अंडमान-निकोबार की जेल में भेज दिया, जिसे कालापानी की सज़ा भी कहा जाता है। देश आज़ाद होने के बाद बटुकेश्वर दत्त भी रिहा कर दिए गए। लेकिन दत्त को जीते जी भारत ने भुला दिया। इस बात का खुलासा नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित किताब बटुकेश्वर दत्त, भगत सिंह के सहयोगीमें किया गया। बटुकेश्वर दत्त ने एक सिगरेट कंपनी में एजेंट की नौकरी कर ली। बाद में बिस्कुट बनाने का एक छोटा कारखाना भी खोला, लेकिन नुकसान होने की वजह से इसे बंद कर देना पड़ा। भारत में उनकी उपेक्षा का एक किस्सा इस किताब में दर्ज है जब बसों के लिए परमिट बनवाने के लिए आवेदन देने गए बटुकेश्वर दत्त से स्वतंत्रता सेनानी होने का सबूत मांगा गया और स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लाने को कहा गया। अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में लगे बटुकेश्वर दत्त 1964 में बीमार पड़ गए। उन्हें गंभीर हालत में पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया। 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर पचास मिनट पर भारत के इस महान सपूत ने दुनिया को अलविदा कह दिया।

 


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें